दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में खारिज, कहा – कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकते

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी, जिसमें नर्सरी दाखिले के लिए बच्चों की स्क्रीनिंग पर प्रतिबंध लगाने के मामले में उप राज्यपाल को सहमति देने या वापस करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति एसके कौल और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि वह कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकते। पीठ ने कहा, क्या कानून बनाने के लिए कोई आदेश हो सकता है? क्या हम सरकार को विधेयक पेश करने का निर्देश दे सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट हर चीज के लिए रामबाण नहीं हो सकता।
दिल्ली हाईकोर्ट ने 3 जुलाई को एनजीओ ‘सोशल ज्यूरिस्ट’द्वारा दायर एक जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा था कि वह विधायी प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। साथ ही, एलजी को दिल्ली स्कूल शिक्षा (संशोधन) विधेयक, 2015 को मंजूरी देने या इसे वापस करने का निर्देश भी नहीं दे सकता है। एनजीओ सोशल ज्यूरिस्ट ने अधिवक्ता अशोक अग्रवाल के माध्यम से शीर्ष अदालत में याचिका दायर कर कहा कि स्कूलों में नर्सरी दाखिले में स्क्रीनिंग प्रक्रिया पर प्रतिबंध लगाने वाला बाल-हितैषी विधेयक पिछले सात वर्षों से केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच बिना किसी औचित्य और विरोध के लटका हुआ है।
जनहित याचिका को खारिज करते हुए, हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा था कि हाईकोर्ट के लिए यह उचित नहीं है कि वह संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए राज्यपाल को उन मामलों में समय सीमा निर्धारित करने का निर्देश दे, जो उसके डोमेन के भीतर पूरी तरह से आते हैं। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा, इस अदालत विचारित राय में, भले ही विधेयक सदन द्वारा पारित कर दिया गया है, लेकिन फिर यह राज्यपाल के लिए हमेशा ऐसे मामले में हस्तक्षेप करने या विधेयक को सदन में वापस भेजने का अधिकार होता है।
दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील में कहा गया है कि यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि 2015 विधेयक का मूल उद्देश्य निजी स्कूलों में नर्सरी प्रवेश में छोटे बच्चों को शोषण और भेदभाव से बचाना है। इसमें कहा गया है कि देरी होने के कारण विधेयक का उद्देश्य विफल हो गया है। दिल्ली सरकार ने 2015 में ही राज्य विधानसभा द्वारा कानून पारित कर दिया था। याचिका में कहा गया है कि विधेयक दिल्ली के 2013 के फैसले को ध्यान में रखते हुए पारित किया गया था। हाईकोर्ट ने सोशल ज्यूरिस्ट की ओर से दायर जनहित याचिका पर सुनवाई की।
हाईकोर्ट ने 2013 में कहा था कि सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए कानून में आवश्यक संशोधन करने पर विचार कर सकती है कि नर्सरी प्रवेश चाहने वाले बच्चों को भी शिक्षा का अधिकार अधिनियम का लाभ मिले। 2009 का कानून 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मौलिक अधिकार के रूप में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करता है।
एनजीओ ने कहा कि उसने 21 मार्च, 2023 को अधिकारियों को एक अभ्यावेदन दिया और उनसे विधेयक को तत्काल अंतिम रूप देने का अनुरोध किया। हालांकि, 11 अप्रैल को, केंद्र से एक प्रतिक्रिया मिली, जिसमें कहा गया कि विधेयक को दोनों सरकारों द्वारा अभी अंतिम रूप नहीं दिया गया है। इसमें कहा गया है कि दिल्ली के निजी स्कूलों में हर साल नर्सरी स्तर पर 1.5 लाख से अधिक बच्चों का दाखिला होता है और तीन साल से अधिक उम्र के बच्चों की स्क्रीनिंग की जाती है, जो सूचना का अधिकार अधिनियम, 2009 की मूल भावना के खिलाफ है।
एनजीओ ने अदालत से अधिकारियों को विधेयक को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में तेजी लाने का निर्देश देने की मांग की थी, जहां तक यह पूर्व-प्राथमिक स्तर पर प्रवेश में स्क्रीनिंग पर रोक लगाने से संबंधित है।

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