कहीं नेपाल तो नहीं भाग गया विकास दुबे

sanjay shamra

दुबे का किलेनुमा घर बिकरू गांव में स्थित है, जहां से उसने पुलिस पर एके-47 से गोलियां दागी थीं। दुबे पर 50,000 का इनाम है।
विकास दुबे किसी समय बसपा का छोटा-मोटा नेता था। लेकिन जरूरत पडऩे पर इस तरह के बदमाश राजनीतिक दलों में ठीहा खोज ही लेते हैं, वैसे उसने भी खोज रखा था।

विकास दुबे। यह वो नाम है जिसने सरकार की नींद उड़ा रखी है। पूरा पुलिस महकमा उसकी तलाश में जुटा है पर वो तीन दिनों से गायब है। कानपुर एनकाउंटर में अपने आठ साथियों की मौत से उत्तेजित पुलिसकर्मियों ने कानून को हाथ में लेते हुए गाडिय़ां तोड़ दी। प्रशासन ने घर ढहा दिया। दुबे को पकडऩे के लिए 100 से ज्यादा सर्च आप्रेशन चल रहे हैं। मगर वो फरार है। नेपाल भाग जाने की खबर है। वहीं चौबेपुर के एसओ विनय तिवारी को मामले में सस्पेंड कर दिया। एनकाउंटर से पहले एसओ विनय तिवारी ने दूबे से बात की थी। विनय ने ही उनको गिरफ्तारी की सूचना दी थी। दुबे का किलेनुमा घर बिकरू गांव में स्थित है, जहां से उसने पुलिस पर एके-47 से गोलियां दागी थीं। दुबे पर 100,000 का इनाम है। दूबे की गिरफ्तारी के लिए एसटीएफ, क्राइम ब्रांच और जिला पुलिस ने 2200 नंबरों को सर्विलांस पर लिया है। दुबे के जिगरी साथी दयाशंकर अग्निहोत्री को पुलिस ने दबोच लिया है। पूछताछ जारी है। विकास दुबे किसी समय बसपा का छोटा-मोटा नेता था। लेकिन जरूरत पडऩे पर इस तरह के बदमाश राजनीतिक दलों में ठीहा खोज ही लेते हैं, वैसे उसने भी खोज रखा था। सन 2001 में इसी विकास दुबे ने कानपुर देहात के शिवली थाने में ही भाजपा नेता संतोष शुक्ला की हत्या कर दी थी। थाने में दिन-दहाड़े हत्या के बाद भी दुबे अदालत से बरी हो गया था। ऐसा नहीं है कि विकास दुबे रातों-रात पनप गया। कानपुर का बिकरू गांव न तो बीहड़ का कोई गांव और न ही यह इलाका दस्यु प्रभावित है। यह गांव कानपुर से 45 किमी दूर है। विकास दुबे स्वयं, या तो उसकी पत्नी या उसका भाई, जिला पंचायत सदस्य रहे हैं और एक समय वह खुद भी अपने गांव का निर्विरोध प्रधान रहा है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि यह केवल बसपा से जुड़ा था, बल्कि यह सभी राजनीतिक दलों में अपने स्वार्थानुसार घुसपैठ करता रहा है। इस घटना में दबिश से पहले जो मुखबिरी हुई है, वह पुलिस बल में अपराधी तत्वों की रब्त-जब्त का ही नतीजा है। गोंडा के एक गांव में 1982 में डीएसपी केपी सिंह दबिश डालने गए थे। जैसे ही उन्होंने दरवाजा खटखटाया, बदमाशों ने उन्हें वहीं भून दिया। यह भी पुलिस के अपराधीकरण का ही मामला था। फिर 2013 में प्रतापगढ़ में डीएसपी जिया उल हक मुलजिम पकडऩे गए थे, वहां उनकी इस कदर पिटाई की गई कि उनकी मौत हो गई। राजनीति में अपराधीकरण को तो पुलिस ठीक नहीं कर सकती है, लेकिन पुलिस में अपराधी तत्वों की घुसपैठ न हो, यह तो पुलिस को ही सुनिश्चित करना पड़ेगा। आइंदा ऐसी मुखबिरी न हो, इसके भी इंतजाम पुलिस को करने होंगे।

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