नीतीश की रडार पर आए लोजपा के बेस वोटर

नई दिल्ली। जब से नरेंद्र मोदी ने 2013 में बीजेपी की बागडोर संभाली है, तब से नीतीश कुमार के बीच प्रेम-घृणा का रिश्ता रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से जुड़ाव सिर्फ राजनीतिक मजबूरियों के कारण है। 2020 के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद से नीतीश कुमार अपनी पुरानी ताकत को फिर से हासिल करने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि नीतीश कुमार गठबंधन में नंबरों के मामले में बीजेपी के जूनियर बन गए हैं।
ऐसी खबरें थीं कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) में तख्तापलट में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी का आशीर्वाद मिला है। नीतीश कुमार और एलजेपी के संस्थापक रामविलास पासवान का आपस में राजनीतिक सम्मान का रिश्ता था। दोनों एक-दूसरे के वोट-जनाधार की जरूरत को समझते रहे। हालांकि रामविलास पासवान के बेटे चिराग ने 2020 के चुनाव में नीतीश कुमार की खुलकर आलोचना की थी और चुनाव में दोनों दल एक दूसरे के आमने-सामने थे।
जेडीयू नेताओं का कहना है कि चिराग पासवान की वजह से 2020 के चुनाव में उनकी पार्टी को 46 सीटें गंवानी पड़ीं। पार्टी का यह भी मानना है कि चिराग को भाजपा नेताओं के एक खास वर्ग का समर्थन हासिल है। जिसके कारण जदयू 71 (वर्ष 2015) से फिसलकर 43 (वर्ष 2020) सीटों पर आ गया। इसके साथ ही बीजेपी 53 (साल 2015) सीटों से बढक़र 74 (साल 2020) सीटें हो गई।
बिहार में 6 फीसदी पासवान मतदाता हैं और एलजेपी बनने के बाद से रामविलास के प्रति वफादार रहे हैं। नीतीश कुमार ने शुरू में पासवान को महादलित का दर्जा देने से इनकार कर दिया था। क्योंकि उनका मानना था कि ये लोग दलितों के बीच समृद्ध जाति के हैं। लेकिन अप्रैल 2018 में नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान के कहने पर पासवान को महादलित का दर्जा दे दिया। अब रामविलास पासवान की मौत पर नीतीश कुमार अपने पक्ष में मतदाताओं को साधाना चाहेंगे। फिलहाल एलजेपी को अपने कब्जे में लेने की लड़ाई में आगे दिख रहे पशुपति पारस का झुकाव भी नीतीश कुमार की ओर है। नीतीश कुमार द्वारा बनाई गई गैर यादव ओबीसी और महादलित जदयू के वोट-जनाधार का बड़ा हिस्सा हैं। भाजपा की नजर ओबीसी के वोटों पर भी है, इसलिए दोनों सहयोगी दलों के बीच तकरार होना स्वाभाविक है। चूंकि बिहार में सिर्फ 16 फीसदी सवर्ण जाति के वोट हैं, इसलिए भाजपा ने अपनी चुनावी संभावनाओं को मजबूत करने के लिए ओबीसी (हिंदुत्व के नाम पर यादवों सहित) मतदाताओं की ओर रुख किया है।
कुल मतदाताओं में महादलितों और पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी करीब 30 फीसद है, जबकि महादलितों (पासवान को छोडक़र) 10 फीसद है। इसके अलावा नीतीश कुमार ने आरएलएसपी प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को अपनी पार्टी में शामिल कर अपने पक्ष में कोरी-कुशवाहा वोट हासिल करने की कोशिश की है। उन्होंने उमेश कुशवाहा को जदयू की बिहार इकाई का अध्यक्ष भी बनाया। केंद्रीय मंत्री पद के लिए पूर्णिया सांसद और जदयू नेता संतोष कुशवाहा के नाम की चर्चा हो रही है। विधानसभा चुनाव से पहले आरएलएसपी एनडीए से बाहर थी। ऐसी स्थिति में 2020 में भाजपा और जदयू दोनों को कुशवाहा मतदाताओं का समर्थन नहीं मिल सका। कुल मिलाकर नीतीश कुमार ने 2020 के विधानसभा चुनाव में झटका झेलने के बाद अपनी स्थिति मजबूत कर ली है, जो भाजपा के लिए भी चिंता का विषय होगा। विधानसभा चुनाव के दौरान मजबूत नेता के रूप में तेजस्वी यादव के उभरने से यादव मतों का 11 फीसद योगदान रहा। जबकि सीपीआई (एमएल) और अन्य वाम दलों के साथ राजद का गठबंधन दलित वोट जुटाने में मददगार साबित हुआ। शराब निषेध और लड़कियों के लिए विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के कारण जदयू को महिला मतदाताओं का समर्थन मिलता है। इस वजह से मोदी की केंद्रीय योजनाओं के आधार पर महिलाओं का समर्थन मिलने की बीजेपी की उम्मीदें धराशायी हो जाती हैं। जिस तरह अन्य राज्यों में भाजपा को महिला मतदाताओं के वोट मिलते हैं, उसी तरह बिहार में महिलाएं बीजेपी की जगह नीतीश कुमार को वोट देती हैं। ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि पासवान के 6 प्रतिशत वोट कहां झुक जाते हैं। चिराग और पारस दोनों ने कहा है कि वे एनडीए के साथ ही रहेंगे। रामविलास पासवान की मौत के बाद खाली पड़ी सीट पर दोनों के मंत्री बनने की उम्मीद है। हालांकि इसमें पारस का दावा इसलिए मजबूत है क्योंकि उन्हें नीतीश कुमार का समर्थन हासिल है।

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