पाक की नापाक हरकतों की देन है तालिबान का बढ़ता वर्चस्व

नई दिल्ली। तालिबान ने अफगानिस्तान में सत्ता पर कब्जा कर लिया है। यह पूरी दुनिया के लोकतंत्र प्रेमी लोगों के लिए बुरी खबर है, लेकिन भारत में इसे लेकर ज्यादा चिंता है । जब वह पहली बार सत्ता में आए तो कश्मीर में आतंकवाद अचानक ताकतवर नजर आने लगा, साथ ही पाकिस्तान की कट्टरता भी बढ़ गई थी। हमें इसका परिणाम कंधार विमान अपहरण और कारगिल युद्ध के रूप में देखने को मिला। दूसरी ओर, ऐसी आम धारणा है कि अगर अफगानिस्तान तालिबान के हाथों में चला गया तो पाकिस्तान की पांचों उंगलियां घी में दिखाई देने लगेंगी। आखिर इस संगठन को बनाने और बीस साल तक नाटो सेना के सामने इसे जिंदा रखने में पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसियों की अहम भूमिका रही है। लेकिन अगर बारीकी से देखें तो अफगानिस्तान के अलावा तालिबान ने जिस देश को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, वह पाकिस्तान है। हमें यह मानने की जल्दी में नहीं करनी चाहिए कि भविष्य में यह कहानी बदल भी सकती है।
1996 से 2001के बीच चली तालिबान हुकूमत को पहला नुकसान यह हुआ कि पाकिस्तान के पास संप्रभुता के नाम पर कुछ नहीं बचा। जब पाकिस्तानी शासक जनरल परवेज मुशर्रफ 2006में अमेरिका गए तो उन्होंने वहां एक टीवी साक्षात्कार में बताया कि अमेरिकी उप विदेश मंत्री रिचर्ड आर्मिटेज ने 9/11 के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों को भेजने का फैसला करते ही पाकिस्तान के खुफिया सलाहकार को खुलेआम धमकी दी थी। मुशर्रफ के मुताबिक, आर्मिटेज ने कहा था कि बमबारी का सामना करने के लिए तैयार हो जाओ । पाषाण युग में वापस जाने के लिए तैयार हो जाओ। मुशर्रफ ने टीवी एंकर से कहा कि मुझे लगता है कि यह बहुत ही अशिष्ट टिप्पणी थी । जब अमेरिका के छोटे स्तर के अधिकारियों ने भी सार्वजनिक मंचों पर पाकिस्तानी शासकों को डांटा है ।
यह याद रखना जरूरी है कि यह प्रक्रिया अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने और पाकिस्तान के साथ सीमावर्ती क्षेत्रों अलकायदा के गढ़ बनने के साथ शुरू हुई थी । पाकिस्तानी शासक इसे सार्वजनिक मंचों पर अपनी मजबूरी के रूप में पेश करते हैं, लेकिन तालिबान के उभार से लेकर अलकायदा के पक्ष में हर घटना में उनकी हर कदम पर सक्रिय भागीदारी होती है। 1993में बेनजीर भुट्टो के सत्ता में आते ही उन्होंने अफगानिस्तान की गुलबुद्दीन सरकार को दरकिनार करने के तरीके तलाशने शुरू कर दिए।
कुछ समय से ऐसा लग रहा था कि पाकिस्तान के लिए अमेरिकी दबंगई बर्दाश्त करना असामान्य नहीं है। खासकर तब जब पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था अपनी ताकत पर चल रही हो और भारत-पाक संघर्ष में अमेरिका का झुकाव भारत से ज्यादा पाकिस्तान की ओर बना रहे। लेकिन इस स्थिति में एक बड़ा बदलाव 2005 में और फिर 2007 में आया। पहले भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर, जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने पाकिस्तान को किनारे रखा, भारत को अमेरिका के साथ लगभग रणनीतिक सहयोगी बना दिया। इस प्रकार सार्वजनिक मंचों पर लंबे समय से गठित भारत-पाक पेयरिंग टूट गई और इससे यह संकेत मिला कि भारत को आगे रखकर अपने घोटालों से दुनिया की आंखों में धूल झोंकने की पाकिस्तानी कोशिशें अब काम नहीं करेंगी । इसके बाद 2007में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) ने फाटा (संघीय प्रशासित कबायली क्षेत्र) क्षेत्र में 13 संगठनों का विलय कर दिया, जिसमें सात केंद्र शासित प्रदेशों बाजौर, मोहमंद, खैबर, ओरकजई, कुर्रम, उत्तरी वजीरिस्तान और दक्षिण वजीरिस्तान की सीमा से लगे सात केंद्र शासित प्रदेश शामिल हैं। ) का गठन किया गया था। इसके आतंकियों ने दक्षिणी पंजाब और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों में अपनी घुसपैठ के बल पर पांच साल के भीतर न सिर्फ पाकिस्तानी सरकार बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में तोडफ़ोड़ की है।
उन्होंने सबसे पहले दिसंबर 2007 के अंत में तालिबान के गठन में अहम भूमिका निभाने वाली बेनजीर भुट्टो की हत्या कर दी थी । यह शुरू में परवेज मुशर्रफ को जिम्मेदार ठहराया गया था, लेकिन फिर पूर्वी अफगानिस्तान में टीटीपी से संबंधित एक सोलह वर्षीय लडक़े ने कबूल किया कि वह आत्मघाती बनियान पहने हुए दृश्य में बैकअप के रूप में तैयार था । अगर बेनजीर किसी कारणवश पहले फिदायीन से बच जाती तो वह अपना काम करता। इसके बाद नवंबर 2008में मुंबई में आतंकी हमला हुआ, जिसके सारे रहस्य अभी तक बाहर नहीं आ सके हैं। लेकिन अजमल कसाब की गिरफ्तारी से दुनिया को यह स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान के सैन्य और खुफिया बुनियादी ढांचे में आतंकी तत्वों की आवाजाही है और यह पूरी दुनिया के सभ्य जीवन के लिए एक बड़ा खतरा है।
इसके बाद 3मार्च, 2009को पाकिस्तान दौरे पर गई श्रीलंकाई क्रिकेट टीम की बस पर आतंकी हमला हुआ। इसके बाद पाकिस्तान ने अपने सबसे लोकप्रिय खेल अंतरराष्ट्रीय आयोजनों को खो दिया । और इसका क्लाइमेक्स 8 जून 2014को पेशावर के एक सैनिक स्कूल पर हुए बर्बर हमले में देखने को मिला था, जिसमें 132 बच्चों समेत 150 से ज्यादा लोग मारे गए थे। पाकिस्तानी इन घटनाओं के आधार पर खुद को आतंकवाद का शिकार कहता हैं। यह भी सही है कि उस समय पाकिस्तान ने टीटीपी के खिलाफ कुछ बड़े सैन्य अभियान चलाए और तालिबान के कई बड़े आतंकियों का सफाया किया। लेकिन यह बताते हुए वह इसके पीछे की प्रक्रिया को गायब कर देता है।
यह याद रखना चाहिए कि जब तालिबान पहली बार सत्ता में आया था, तब केवल तीन देशों ने इसे राजनयिक मान्यता दी थी-पाकिस्तान , सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात । लेकिन तालिबान नेताओं को अब पिछले अनुभव से पता चल गया है कि उनके लिए एक-दो देशों के हाथों में अपनी गर्दन देकर सत्ता लेना असंभव है। यही वजह है कि उनके प्रतिनिधिमंडल ईरान, चीन और रूस को संरेखित करने में व्यस्त हैं और उन्होंने सऊदी अरब के कट्टर प्रतिद्वंद्वी कतर में अपना राजनयिक पद बनाए रखा है ।

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