कर्नाटक के नए सीएम के सामने होंगी कई चुनौतियां

नई दिल्ली। कर्नाटक देश का पहला और एकमात्र दक्षिण भारतीय राज्य है, जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अपने दम पर सत्ता हासिल की थी, लेकिन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद राज्य में भाजपा के सामने नई मुश्किलें खड़ी हो रही हैं। अब फिर से राजनीतिक समीकरण मजबूत करने के लिए भाजपा के लिए दो चुनौतियों से पार पाना सबसे अहम होगा। पहला, भाजपा को यह सुनिश्चित करना होगा कि येदियुरप्पा 2012 की तरह बगावत फिर से न कर दें। दूसरा, लिंगायत समुदाय का समर्थन बरकरार रखा जाएं। खास बात यह है कि लिंगायत समुदाय में येदियुरप्पा का खास दबदबा है।
भाजपा को 2013 के विधानसभा चुनाव में एहसास हो गया था कि येदियुरप्पा को साथ लिए बिना लिंगायत समर्थन हासिल नहीं किया जा सकता। दरअसल, 2011 में मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद येदियुरप्पा ने बीजेपी छोडक़र कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) का गठन किया था। दो साल बाद हुए चुनावों में केजेपी ने भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाया और आंकड़े बताते हैं कि 2013 के चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन 1994 के बाद से सबसे खराब रहा।
2019 में बीजेपी ने 28 में से 25 लोकसभा सीटें जीतकर अपना सबसे मजबूत प्रदर्शन दिया था। हिंदुओं के भारी समर्थन के बाद लिंगायत का भी 87 प्रतिशत समर्थन मिला था। राज्य में लिंगायत आबादी 16 प्रतिशत-17 प्रतिशत है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस-जेडीएस की सरकार गिर गई थी, जिसके बाद येदियुरप्पा को सीएम बनाया गया था लिंगायत कर्नाटक में बीजेपी के बड़े समर्थक हैं, लेकिन वे येदियुरप्पा के भी वफादार हैं।
अगर 2008 और 2013 के समुदायवार वोट शेयर की तुलना की जाए तो सीएसडीए लोकनीति के सर्वे से पता चलता है कि लिंगायतों ने 2013 में भाजपा से मुंह फेर लिया था। जबकि, 2014 के चुनाव में लिंगायत समर्थन मे थे।
कर्नाटक में जातिगत राजनीति का बहुत महत्व रहा है। देवराज के नेतृत्व में अहिंदा गठबंधन को लेकर कांग्रेस को कमान मिली थी। इनमें अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग और दलित शामिल थे। इसके साथ ही 2018 के चुनाव के दौरान कांग्रेस एक तरफ अहिंदा कार्ड खेल रही थी तो दूसरी तरफ लिंगायतों को लुभाने की कोशिश कर रही थी। ऐसी स्थिति में पार्टी को लिंगायतों का समर्थन तो मिला, लेकिन अन्य वर्गों में नुकसान उठाना पड़ा।

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