मेरी कोरोना डायरी… चौथा और पांचवा दिन, याद आ रहीं अस्पताल के इस कमरे में

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जब से अस्पताल आया हूं तब से सबसे खराब आज लगा। बीमारी के कारण नहीं, पार्टी मारे जाने के कारण। आज का दिन पापा वन्या-डे होता है। मैं और मेरी नन्ही चिडिय़ा जब भी दिन में पार्टी मनाने बाहर जाते हैं तो उस दिन को पापा वन्या-डे कहते हैं। आज बेटी दिवस था। यह पहला मौका था जब इस दिन मैं अपनी नन्ही जान के पास नहीं था। उसे ज्यादा खराब न लगे इसके लिए मैंने केक और कुछ गिफ्ट भिजवाए। वन्या और उनकी सहेलियों ने मोनी के साथ मिलकर पार्टी मना ली और मैं वीडियो कॉल पर देखकर अस्पताल में ही खुश हो गया।
पांच दिन हो गए हैं यहां। कल हालत इस लायक नहीं हो पा रही थी कि कुछ लिख पाता। बुखार को भी मुझसे इश्क हो गया है कमबख्त सौ और 101 से नीचे नहीं जाता। बबिता ने कहा, कम क्यों नहीं हो रहा? मैैंने कहा, मैै ऐसा ही हूं, जो मेरे पास आता है उसे मुझसे इश्क हो जाता है तो जाने का मन नहीं करता उसका मेरे पास से। बुखार का भी यही हाल है। खांसी ने सारे फेफड़ों की ऐसी हालत कर दी है मानो मैराथन में दौड़ लगा कर आ रहे हैं। डॉक्टर रचित काफी देर मेरे पास रहे, चेस्ट विशेषज्ञ हैं। कुछ महंगी जांच भी हुई। बुखार कम करने को दी जाने वाली डोलो एक की जगह डेढ़ कर दी गयी है। कमजोरी ज्यादा हो जाती है पर मैं दिमाग पर चढऩे ही नहीं देता। मेरे बड़े भाई ने कबीर माला के कुछ गीत भेजे, सुनकर मजा आ गया। कबीर से बड़ा कवि कोई लगता ही नहीं। जिस जमीनी हकीकत को कबीर ने जिया और लिखा उसका कोई सानी नहीं। मुझे महात्मा बुद्ध भी बहुत पसंद थे तो मैंने बेटे का नाम सिद्धार्थ रखा वरना मैं कबीर ही रखता।
अस्पताल के कमरे में आकर पचास परसेंट जेल जैसे एहसास हो गए। एक दायरा है जिसके भीतर ही आपको रहना है। मुझे जिंदगी में कोई भी दायरा, कोई रीति, कोई रिवाज पसंद ही नहीं। मैं जीवन को उन्मुक्त भाव से जीना चाहता हूं। बहती हुई नदी पर बने बांध कितने ही खूबसूरत हों पर अनेक पगडंडियों को तोड़ती अपनी मनमर्जी से बहती नदी ही जीवन का सार है। कहीं से बांधना नहीं। यही बंधन दिमाग में ग्रंथि पैदा कर देते हैं। जो अलौकिक लौ दिखती है वो दूर होती जाती है। तमाम परंपराएं, तमाम बंधन मानो बैठे हैं आपको अपने जाल में उलझाने के लिए। जितना इसमें उलझोंगे उतने ही ईश्वर से दूर हो जाओगे। ईश्वर के पास जाने का रास्ता बंधन नहीं, मुक्ति है। उस ताकत को पाना चाहते हो तो हर बंधन से मुक्त हो जाओ। जीवन कृष्ण जैसा है। सारे सुखों का उपभोग करते कृष्ण कभी भी उसमें लिप्त नहीं हुए। कुछ भी करूं मन के एक कोने को अलग कर देता हूं मैं। वो बैठकर मुझे देखता रहता है निर्लिप्त भाव से। वो जानता है मैं जो कर रहा वो मैं नहीं कर रहा। एक मजेदार बात बताऊं, कोई यकीं नहीं करेगा। सब समझते हैं, मैं बहुत महत्वकांक्षी हूं। मुझे बहुत ग्लैमर चाहिए। मेरी फेसबुक देखकर आम तौर पर लोगों की धारणा यह बनती भी है। बड़े लोगों से दोस्ती, रिश्ते यह सब बताते भी हंै यही कहानी पर मैं जिस संजय को पसंद करता हूं, उसका इससे कोई सरोकार नहीं। वो किसी उद्योगपति, किसी बड़े अफसर, किसी नेता से रिश्ता नहीं चाहता। पहाड़ की नदी का एक किनारा और एक छोटा सा वहां पर घर यह मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी चाहत है। इन दोनों संजय के बीच संतुलन बनाना होता है मुझे।
बबिता जानती है मुझे लोगों से कम से कम मिलना पसंद है। मेरा बस चले तो महीनों अपने घर से ही न निकलूं मैं। संगीत, किताबें और शांति इससे कीमती चीज कुछ नहीं। विवेक इसी कमरे में एडमिट था तो कह रहा था दिन काटना मुश्किल होगा पर मुझे एक दिन भी ऐसा नहीं लगा। पर हकीकत में रोज इस संजय को मारना पड़ता है और उस संजय को जिंदा करना पड़ता है जिसकी खबरें सरकार के चमचे अफसरों को इतनी खराब लगती हैं कि वो जेल तक भिजवाने को परेशान रहते हैं। मैं जूझता हूं उनके सिस्टम से, ऐसे ही… जैसे मैं और सिद्धार्थ कैरम खेल रहे हो एक दूसरे की गोट पर निशाना लगाते। प्रभु यीशु ने भी कहा था इनको क्षमा करना यह नहीं जानते यह क्या कर रहे हैं तो मैं भी कह देता हूं खुद को ईश्वर मान चुके इन चमचे अफसरों को माफ कर देना…। ऐसे तमाम ख्याल आज दिन भर आते रहे। इस बीमारी और अस्पताल ने एक बात और पुख्ता कर दी कि ठीक दस साल बाद सब कुछ छोडक़र किसी नदी या समुद्र के किनारे चला जाऊंगा, चाहे अपने देश में हो या विदेश में। इस तरह की बीमारी, इस तरह का एकाकी जीवन आपको जिंदगी के कई पन्नों को नए सिरे से पढऩे का मौका देता है। मैं भी खुद को ही पढ़ रहा हूं आजकल। जो लोग मेरी सेहत को लेकर परेशान हैं उनका दिल से आभार। यकीं रखिए, कुछ नहीं होगा मुझे। नीचे गाड़ी खड़ी है। निगेटिव आये या न आये फिलहाल अटैची उठाकर बुधवार तक निकलने की योजना और तबीयत सही रही तो अगले हफ्ते गोवा में समुद्र किनारे बीयर पीता मिलूंगा आपको।

बहती हुई नदी पर बने बांध कितने ही खूबसूरत हों पर अनेक पगडंडियों को तोड़ती अपनी मनमर्जी से बहती नदी ही जीवन का सार है।

कोरोना पॉजिटिव होने के बाद मैं इरा मेडिकल कॉलेज में एडमिट हूं। बहुत सारे साथियों ने फोन करके कहा कि लिखूं वहां से कि कैसा महसूस कर रहा हूं तो रोज का संस्मरण लिखता रहूंगा। – संजय शर्मा

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